भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कवच / लक्ष्मीकान्त मुकुल
Kavita Kosh से
गोजी भाँजल उनुकर खेल रहे
अनमनाह दिनन के सांझ में लौट के
आवां में पाकत बरतन
दुबकल रहसन आके नींनि का गोदी में
बगुलन के तिरछा पाँति
फँसत जात रहे अलोते मिटिकत
दरियाव का पास के झलांसन के बीच
गरूअन के खुरन के उठत धूल के बवंडर
कनपट्टियन में छेदत रहे आकाष
खरवरिया में नाचत बतास
सिटी बजावत फिरत रहे
बाँस के पतई से खेलत खानी
बिरहा अलापत हरवाहा
झबांन हो जा रहे पपड़ी परल खेतन के देखि
पुरबइया के झकोरा बहते
पसीजे लागत रहे गमछी से पसीना के गंध
चलल जात रहे चरवाहन के झुंड
चिरई के नाँव वाला गाँव का राह में
सुनसान परल रहे ऊ गाँव
अल्हारी का कवच में हरदमें लपटाइल