भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कवितावली/ तुलसीदास / पृष्ठ 28
Kavita Kosh से
( झूलना)
(4)
सुभुजु मारीचु खरू त्रिसिरू दूषनु बालि,
दलत जेहिं दूसरो सरू न साँध्यो।
आनि परबाम बिधि बाम तेहि रामसों ,
समि संग्रामु दसकंघु काँध्यो।।
समुझि तुससीस-कपि-कर्म घर-घर घैरू,
बिकल सुनि सकल पाथोधि बाँध्यो।
बसत गढ़ बंक, लंकेस नायक अछत,
लंक नहिं खात कोउ भात राँध्यो।4।
(5)
‘बिस्वजयी’ भृगुनाथ-से बिनु हाथ भए हनि हाथ हजारी।
बातुल मातुलकी न सुनी सिख का ‘तुलसी’ कपि लंक न जारी।
अजहूँ तौ भलो रघुनाथ मिलें, फिरि बूझिहै, को गज , कौन गजारी।
कीर्ति बड़ो, करतूति बड़ो, जन-बात बड़ो, सो बड़ोई बजारी।5।