कहने लगे राधिका से फिर कर / हनुमानप्रसाद पोद्दार
कहने लगे राधिकासे फिर कर अभिनन्दन आदर-मान।
”हरिने भेजा मुझे आपको देने यह संदेश महान॥
गये साथ अक्रूर चचाके मथुरा कंस-यजके हेतु।
राज-रजक बधकर पहने सब नूतन वसन, उड़ा यश-केतु॥
धनुष-भङङ्ग कर, मारे मुष्टिस्न्क तथा मल्ल-चाणूर विशाल।
गज कुवलया कदनकर, मारे मामा कंस वीर विकराल॥
माता-पिता देवकीजी-वसुदेव हुए फिर कारामुक्त।
प्रणत हुए उनके श्रीचरणोंमें हरि आदर-श्रद्धायुक्त॥
उग्रसेनका किया कृष्णने फिर सिंहासनपर अभिषेक।
त्राण किया द्विज-साधुवर्गका, रखी धर्मकी पावन टेक॥
अज, अविनाशी, अखिल भुवनपति, ब्रह्मा परात्पर सर्वाधार।
दुष्कृत-नाश, साधु-संरक्षण-हित लेकर मानव अवतार॥
करते धर्म-स्थापना वे, पर रहते सदा स्वमहिमा-लीन।
चिदानन्दघन घट-घटवासी सम माया-ममतासे हीन॥
कहलाया है-’मोह त्याग कर करो निरन्तर मनमें ध्यान।
ब्रह्मा रूपका जो व्यापक निर्गुण निरुपाधि नित्य निर्मान’॥”
(सोरठा)
सुन उद्धवकी बात विस्मय-विथकित राधिका।
हर्ष-प्रड्डुल्लित गात बोलीं-मधुर सरल वचन॥
(राग देशकार-ताल कहरवा)
’उद्धवजी ! हम समझ न पायीं आप सुनाते किसका हाल।
कौन ब्रह्मा व्यापक निर्गुण निरुपाधि कुवलयाके हैं काल॥
आकर श्रीअक्रूर ले गये जिनको मथुरा अपने संग।
रजक-प्राण हर, बसन पहनकर, किया जिन्होंने धनुका भङङ्ग॥
होंगे कोई वीर जिन्होंने मार दिये मुष्टिस्न्क-चाणूर।
वधकर कंस नरेश किये वसुदेव-देवकीके दुख दूर॥
नहीं जानते उद्धवजी ! वे प्रियतम श्याम नित्य मनचोर।
रहते आठों याम हमारे भीतर-बाहर शुचि सब ओर॥
ललित त्रिभङङ्ग-अङङ्ग सुषमा-निधि गुण-निधि शुचि सौन्दर्य-निधान।
नव-नव नित माधुर्य, मुरलिधर, मोर-मुकुटधर, शोभा-खान॥
गुजमाल, लकुटी कर शोभित, अधरोंपर मधुमय मुसकान।
वन-वन विचरण कर, देते वे जीवमात्रको शुचि रस-दान॥
आते सदा घरोंमें प्यारे, खाते वे नित माखन चोर।
देख-देख उनकी लीला हम रहतीं नित आनन्द-विभोर॥
कालिन्दीके कूल खेलते मधुर मनोहर रचते रास।
निभृत निकुजोंमें लीला कर मधुर बढ़ाते अति उल्लास॥
नहीं जानतीं हम वे क्या हैं ? ब्रह्मा परात्पर अज अखिलेश !
हम तो नित्य देखतीं पातीं उनको निज प्रियतम हृदयेश !
श्रीवसुदेव-देवकीके हैं कौन सुपुत्र तेज-बल-धाम ?
नन्द-यशोदाके लाला हैं मधुर हमारे तो घनश्याम !
वे न छोड़ सकते हैं हमको, हम न छोड़ सकतीं पल एक।
रहते सदा मिले वे प्रियतम, भूल सभी कुछ त्याग-विवेक॥
नहीं चाहतीं भोग-मोक्ष कुछ, करतीं नहीं धारणा-ध्यान।
जब प्रियतमका संग प्राप्त है नित्य मधुरतम अव्यवधान॥
प्रियतम श्याम हमारे वे कर रहे यहींपर नित्य निवास।
किनका क्या संदेश सुनें हम, हों फिर किसके लिये उदास ?
किसका ध्यान करें क्यों? हम क्योंजानें किसी ब्रह्माका रूप।
मन-छाये-तन-मिले निरन्तर जब प्राणप्रिय श्याम अनूप॥’
सुनकर राधाकी रस-वाणी पाकर पावन प्रेम-समीर।
जान-गर्व उड़ गया, हो उठे उद्धव सहसा प्रेम-अधीर॥
’कैसा अनुपम त्याग परम है, कैसा परम दिव्य अनुराग।
कैसी प्रिय-उपलिध सहज है, नहीं कहीं भी कुछ भी दाग॥
धन्य-धन्य इन गोपी-जनको, सफल इन्हींका जीवन ोष्ठस्न्।
बने प्रेमवश सर्वात्मा भगवान् स्वयं हैं जिनके प्रेष्ठस्न्॥
श्रुतियाँ ढूँढ़ रहीं नित जिसको पाती नहीं कहीं संधान।
उस दुर्लभ मुकुन्द-पदवीको पा प्रत्यक्ष भजा अलान॥
दुस्त्यज स्वजन-समूह-आर्य-पथका कर त्याग बिना आयास।
पाया माधवके शुचि हृदय-भवनमें इसीलिये शुभ वास॥
मेरे लिये यही सर्वोाम लाभ, यही है परम ोय।
पड़ती रहे चरण-रज मेरे मस्तकपर इनकी-यह ध्येय॥
बन जाऊँ मैं वृन्दावनमें लता-गुल्म-औषधि सामान्य।
मिलती रहे सतत मुझको इनकी पद-धूलि नित्य सुर-मान्य॥
दिव्य मनोरथ कर यों मनमें कर राधा-पदमें प्रणिपात।
चले नमन कर गोपी-जनको उद्धव हर्षित-पुलकित गात॥