भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कान्ह की बाँकी चितौनि चुभी झुकि / अज्ञात कवि (रीतिकाल)
Kavita Kosh से
कान्ह की बाँकी चितौनि चुभी झुकि ,
काल्हि झाँकी है ग्वालि गवाछनि ।
देखी है नोखी सी चोखी सी कोरिन ,
ओछे फिरै उभरे चित जाछनि।
मारेइ जाति निहारै मुबारक यै ,
सहजै कजरारे मृगाछनि ।
सीँक लै काजर दे री गँवारिनि ,
आँगुरी तेरी कटैगी कटाछनि ।
रीतिकाल के किन्हीं अज्ञात कवि का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।