भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
किन मौसमों के यारों हम ख़्वाब देखते हैं / 'महताब' हैदर नक़वी
Kavita Kosh से
किन मौसमों के यारों हम ख़्वाब देखते हैं
जंगल पहाड़ दरिया तालाब देखते हैं
इस आसमाँ से आगे इक और आसमाँ पर
महताब से जुदा इक महताब देखते हैं
कल जिस जगह पड़ा था पानी का काल हम पर
आज उस जगह लहू का सैलाब देखते हैं
उस गुल पे आ रहीं है सौ तरह की बहारें
हम भी हज़ार रंगों के ख़्वाब देखते हैं
दरिया हिसाब ओ हद में अपनी रवाँ दवाँ है
कुछ लोग हैं के इस में गिर्दाब देखते हैं
ऐ बे-हुनर सँभल कर चल राह-ए-शाएरी में
फ़न-ए-सुख़न के माहिर अहबाब देखते हैं