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किश्तों-किश्तों, थोड़ा मरता, थोड़ा जीता हूं / अश्वनी शर्मा
Kavita Kosh से
किश्तों-किश्तों, थोड़ा मरता, थोड़ा जीता हूं
कई निशानेबाजों को मैं, एक सुभीता हूं।
अग्नि परीक्षा हर युग की होती है जुदा-जुदा
कड़वे घूंटों जैसा जीवन, मैं भी पीता हूं।
लोग भागवत के दीवाने नाचें-गायेंगे
पार्थ सारथि तक जो भूला, मैं वो गीता हूं।
हार गले में, हार ज़िन्दगी में होते आये
हारे हार नहीं, लेकिन, है मिले, जो जीता हूं।
जब भी चाहे हो जाती बदनाम गली मेरी
मजबूरी की तोहमत है ये, मैं तो रीता हूं।
अगर बड़ा विस्फोट नहीं तो, छोटे, छोटे हों
अंदर-अंदर सुलग रहा जो, एक पलीता हूं।