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किष्किंधा काण्ड / भाग 2 / रामचंद्रिका / केशवदास

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बालि-
तुम आदि मध्य अवसान एक।
जग मोहित हौ बपु धरि अनेक।।
तुम सदा शुद्ध सबकों समान।
केहि हेतु हत्यौ करुनानिधान?।।18।।
राम- सुनि वासव-सुत बुधि बल-निधान।
मैं शरणागत हित हते प्रान।।
यह साँटो (बदला) लै कृष्णावतार।
तब ह्वै हौ तुम संसार पार।।19।।
रघुबीर रंक तें राज कीन।
युवराज विरद अंगदहि दीन।।
तब किष्किंधा तारा समेत।
सुग्रीव गये अपने निकेत।।20।।
(दोहा) कियो नृपति सुग्रीव हति, बालि बली रणधीर।
गये प्रवर्षण अद्रि कों, लक्ष्मण श्री रघुवीर।।21।।

प्रवर्षणगिरि वर्णन

त्रिभंगी छंद

देख्यौ शुभ गिरिवर सकल सोम धर,
फूल बरन बहु फलनि फरे।
सँग सरभ ऋण जन केसरि के गुण,
मनहुँ धरणि सुग्रीव धरे।
सँग सिवा विराजै गज मुख गाजै,
परभृत (कोकिल) बोलै चित्त हरे।
सिर सुभ चंद्रक (तालाब, चंद्रमा) धर परम दिंगबर,
मानौ हर अहिराज धरे।।22।।

तोमर छंद

शिशु सौं लसै सँग धाइ। वनमाल ज्यौ सुरराइ।।
अहिराज सों यहि काल। बहु शीश शेभनि माल।।23।।

स्वागत छंद

चंद मंद द्युति वासर देखौ। भूमि हीन भुवपाल विशेषौ।
मित्र देखि यह शोभत है यौं। राजसाज बिनु सीतहि हौं ज्यौं।।24।।
(दोहा) पतिनी पति बिनु दीन अति, पति पतिनी बिनु मंद।
चंद्र बिना ज्यौं यामिनि, ज्यौं बिन यामिनि चंद।।25।।

वर्षा वर्णन

स्वागत छंद

देखि राम बरषा ऋतु आयी। रोम रोम बहुधा दुखदायी।
आसपास तम की छबि छायी। राति दिवस कछु जानि न जायी।।26।।
मंद मंद धुनि सों घन गाजैं। तूर (नगाड़ा) तार जनु आवझ बाजैं।
ठौर ठौर चपला चमकै यौं। इंद्रलोक तिय नाचति हैं ज्यौं।।27।।

मोटनक छंद

सोहैं घन श्यामला मोर घनैं। मोहैं तिनमैं बकपाँति मनैं।
शंखावलि पी बहुधा जल सौं। मानो तिनकौ उगिलै बल सौं।।28।।
शोभा अति शक शरासन मैं। नाना द्युति दीसति है घन मैं।।
रत्नावलि सी दिवि द्वार भनो। वर्षागम बाँधिय देव मनो।।29।।

तारक छंद

घन घोर घने दशहूँ दिशि छाये।
मघवा जनु सूरज पै चढ़ि आये।।
अपराध बिना क्षिति के तन ताये।
तिन पीड़न पीड़ित ह्वै उठि धाये।।30।।
अति गाजत बाजत दुंदुभि मानौ।
निरघात सबै पविपात बखानौ।।
धनु है यह गौर मदाइनि (इन्द्रधनुष) नाहीं।
शर जाल बहै जलधार बृथा हीं।।31।।
भट चाताप दादुर मोर न बोले।
चपला चमकै न फिरै खँग खोले।।
द्युतिवंतन कौं बिपदा बहु कीन्हीं।
धरनी कह चंद्रवधू (वीरबहूटी) धरि दीन्हीं।।32।।
तरुनी यह अत्रि ऋषीश्वर की सी।
उर मैं हम चंद्रकला सम दीसी।
वरषा न सुनैं कलिकै किल काली।
सब जानत हैं महिमा अहिमाली।।33।।

घनाक्षरी

भौंहैं सुरचाप चारु प्रमुदित पयोधर, (उनये हुए बादल; उन्नत स्तन)
भूखन जराय (जड़ाऊ गहने; भू$ख नजराय, पृथ्वी और आकाश में दिखाई देती हैं।) जोति तड़ित रलाई है।
दूरि करी सुख मुख सुखमा शशी की, नैन अमल (स्वच्छ आँखें; नै न अमल नदियाँ निर्मल नहीं हैं।)
कमल दल दलित निकाई (सुंदरता, काई रहित होना) है।।
केसौदास प्रबल करेनुका (मत्त गजगामिनी; प्रबल$क$रेनुका$गमनहर, धूल और आवागमन रोकने वाला प्रबल जल) गमनहर,
मुकुत सु हंसक सबद (हंसों के शब्दों से मुक्त; बिछुओं का स्वछंद शब्द) सुखदाई।
अंबर बलित (घिरा हुआ आकाश; वस्त्र पहने हुए।) मति मोहै नीलकंठ (मयूर; महादेव) जू की,
कालिका कि बरखा हरखि हिय आई है।।34।।