किष्किंधा काण्ड / भाग 3 / रामचंद्रिका / केशवदास
(दोहा)
वर्णत केसव सकल कवि, विषम गाढ़ तम सृष्टि।
कुपुरुष सेवा ज्यों भई, संतत मिथ्या दृष्टि।।35।।
चंद्रकला छंद
कल-हंस, कलानिधि, खंजन, कंज, कछू दिन केसव देखि जिये।
गति, आनन, लोचन, पायन के अनुरूपक से मन मानि लिये।।
यहि काल कराल तें शोधि सबैं हटिकै बरषा मिस दूरि किये।
अब धौं बिन प्रानप्रिया रहिहैं कहि कौन हितू अवलंबि हिये।।36।।
शरद वर्णन
(दोहा) बीते वर्षा काल यौं, आई, शरद सुजाति।
गये अँध्यारी होति ज्यौं, चारु चाँदनी राति।।37।।
मोटनक छंद
दंतावलि कुंद समान गनौ। चंद्रानन कुंतल भौंर घनौ।।
भौहें धनु खंजन नैंन मनौ। राजीवनि ज्यों पद पानि भनौ।।38।।
हारावलि नीरज (मोती) हीय रमैं। हैं लीन पयोधर अंबर मैं।।
पाटीर (चंदन) जोन्हाइहि अंग धरे। हँसी गति केशव चित्त हरै।।39।।
श्रीनारद की दरसै मति सी। लोपै तमता अपकीरति सी।।
मानौ पतिदेवन की रति कौ। सतमारग की समुझै गति कौ।।40।।
(दोहा) लक्ष्मण दासी वृद्ध सी, आई शरद सुजाति।
मनहुँ जगावन कौं हमहिं, बीते वर्षा राति।।41।।
सुग्रीव पर क्रोध
कुंडलिया
तातें नृप सुग्रीव पै, जैए सत्वर तात।
कहियो वचन बुझाइ कै, कुशल न चाहौ गात।।
कुशल न चाहौ गात चाहत हौ बालिहि देख्यो।
करहु न सीता सोध, काम बस राम न लेख्यो।।
राम न लेखौ (कुछ नहीं गिनते हो) चित्त लही सुख संपति जातें।
‘मित्र’ कह्यो गहि बाँह कानि कीजत है तातें।।42।।
(दोहा) लक्ष्मणा किष्किंधा गये, वचन कहे करि क्रोध।
तारा तब समुझाइयो, कीन्हों बहुत प्रबोध।।43।।
दोधक छंद
बोलि लए हनुमान तबै जू।
ल्यावहु वानर बोलि सबै जू।।
बार लगै न कहूँ बिरमाहीं।
एक न कोउ रहै घर माहीं।।44।।
त्रिभंगी छंद
सुग्रीव सँघाती मुख दुति राती,
केसव साथहि सूर नये।
आकास विलासी सूरप्रकासी,
तब ही वानर आइ गये।
दिसि दिसि अवगाहन, सीतहि चाहन,
यूथप यूथ सबै पठये।
नल नील ऋच्छपति अंगद के सँग,
दक्षिण दिसि को बिदा भये।।45।।
सीता खोज हित वानर सेना का प्रस्थान
(दोहा) बुधि विक्रम व्यवसाय युत, साधु समुझि रघुनाथ।
बल अनंत हनुमंत के, मुँदरी दीन्हीं हाथ।।46।।
हीरक छंद
चंड चरण छंडि धरणि मंडि गगन धावहीं।
ततछन ह्वै दच्छिन दिसि लच्छ नहीं पावहीं।।
धीर धरन वीर वरन सिन्धु तट सुभावहीं।
नाम परमधाम धरम राम करम गावहीं।।47।।
अनुकूल छंद
अंगद- सीय न पाई अवधि विनासी।
होहु सबै सागरतटवासी।
जो घर जैए सकुच अनंता।
मोहिं न छोड़ै जनकनिहंता।।48।।
हनुमान- अंगद रक्षा रघुपति कीन्हौं।
सोध न सीता जल थल लीन्हौ।।
आलस छाँड़ौ कृत उर आनौ।
होहु कृतघ्नी जनि, शिव मानौ।।49।।
दंडक
अंगद- जीरन जटायु गीध धन्य एक जिन रोकि,
रावन विरथ कीन्हौ सहि निज प्रान हानि।
हुते हनुमंत बलवंत तहाँ पाँचजन,
दीने हुते भूषन कछूक रनरूप जानि।।
आरत पुकारत ही ‘राम’ ‘राम’ बार बार,
लीन्हों न छँड़ाइ तुम सीता अति भीत मानि।
गाइ द्विजराज तिय काज न पुकार लागै,
भोगवै नरक घोर चोर को अभयदानि।।50।।
(दोहा) सुनि संपति सपच्छ ह्वै, रामचरित सुख पाय।
सीता लंका माँझ हैं, खगपति दयी बताय।।51।।
दंडक
हरि कैसो वाहन की बिधि कैसो हेम हंस,
लीक की लिखत नभ पाहन के अंक कों।
तेज को निधान राम-मुद्रिका विमान कैघौं,
लक्षण को बाण छूट्यो रावण निशंक कों।।
गिरि गजगंड तैं उड़ान्यो सुवरन अलि,
सीता पद पंकज सदा कलंक रंक कों।
हवाई (आतिशबाजी का बाण) सी छूटी केसोदास आसमान मैं,
कमान (तोप) कैसो गोला हनुमान चल्यो लंक कों।।52।।