सुंदर काण्ड / भाग 1 / रामचंद्रिका / केशवदास
हनुमान लंका-गमन
(दोहा) उदधि नाकपतिशत्रु (मैनाक) को, उदित जानि बलवंत।
अंतरिच्छ हीं लच्छि पद, अच्छ छुयो हनुमंत।।1।।
बीच गये सुरसा मिली, और सिंहिका नारि।
लीलि लियो हनुमंत तेहि, कढ़े उदर कहँ फारि।।2।।
तारक छंद
कछु राति गये करि दंश दशा सी।
पुर माँझ चले वनराजि विलासी।।
जब हीं हनुमंत चले तजि शंका।
मग रोकि रही तिय ह्वै तब लंका।।3।।
हनुमान लंका-संवाद
लंका- कहि मोहि उलंप चले तुम को हौ?
अति सूच्छम रूप धरे मन मोहौ!
पठये केहि कारण कौन चले हो?
सुर हौ किधौं कोऊ सुरेश भले हौ।।4।।
हनुमान- हम बानर हैं रघुनाथ पठाये।
तिनकी तरुनी अवलोकन आये।।
लंका-हति मोहि महामति भीतर जैए।
हनुमान- तरुणीहि हते कब लौं सुख पैये।।5।।
लंका- तुम मारेहि पैं पुर पैठन पैहौ।
हठ कोटि करौ धरही फिरि जैहौ।।
हनुमंत बली तेहि थापर मारी।
तजि देह भई तब ही वर नारी।।6।।
लंका- (चौपाई) धनदपुरी हौं रावन लीन्हीं।
बहु बिधि पापन के रस भीनी।।
चतुरानन चित चिंतन कीन्हो।
वरु करुणा करि मो कहँ दीन्हो।।7।।
जब दसकंठ सिया हरि लैहै।
हरि (बंदर) हनुमंत विलोकन ऐहै।
जब वह तोहि हतै तजि संका।
तब प्रभु होइ विभीषण लंका।।8।।
चलन लगौ जबही तब कीजौ।
मृतक शरीरहि पावक दीजौ।।
वह कहि बात भई वह नारी।
सब नगरी हनुमंत निहारी।।9।।
रावण-शयनागार
तब हरि रावण सोवत देख्यो।
मणिमय पलका की छबि लेख्यो।।
तहँ तरुनि बहु भाँतिन गावैं।
बिच बिच आवझ बीन बजावैं।।10।।
मृतक चिता पर मानहु सोहैं।
चहुँ दिशि प्रेतवधू मन मोहैं।।
जहँ जहँ जाइ तहाँ दुख दूनो।
सिय बिन है सिगरौ घर सूनो।।11।।
भुजंगप्रयात छंद
कहूँ किन्नरी किन्नरी (सारंगी) लै बजावैं।
सुरी आसुरी बाँसुरी गीत गावैं।।
कहूँ यक्षिणी पक्षिणी को पढ़ावैं।
नगी कन्यका पन्नगी को नचावैं।।12।।
पियै एक हाला गुहै एक माला।
बनी एक बाला नचै चित्रशाला।।
कहूँ कोकिला कोक की कारिका कों।
पढ़ावै सुआ लै सुकी सारिका कों।।13।।
फिरîो देखिकै राजशाला सभा कों।
रह्या रीझिकै बाटिका की प्रभा कों।।
फिरîो ओर चौहूँ चितै शुद्ध गीता।
विलोकि भली सिंसिपा मूल सीता।।14।।
सीता दर्शन
धरे एक बेनी मिली मैल सारी।
मृणाली मनो पंक सौं काढ़ि डज्ञरी।।
सदा रामनामै ररे दीन बानी।
चहूँ ओर हैं राकसी दुःखदानी।।15।।
ग्रसी बुद्धि सी चित्त चिंतानि मानौं।
किधौं जीभ दतावली मैं बखानौं।।
किधौ घेरिकै राहु नारीन लीनी।
कला चंद्र की चारु पीयूष भीनी।।16।।
किघौं जीव की ज्योति मायान लीनी।
अविद्यान के मध्य विद्या प्रवीनी।।
मनो संबरस्त्रीन मैं काम वामा।
हनुमान ऐसी लखी राम-रामा।।17।।
तहाँ देव-द्वेषी दसग्रीव आयो।
सुन्यो देवि सीता महा दुःख पायो।
सबै अंग लै अंग ही मैं दुरायो।
अधीदृष्टि कै अश्रुधारा बहायो।।18।।
रावण सीता संवाद
रावण- सुनो देवि मोपै कछू इष्ट दीजै।
इती सोच तौ राम काजे न कीजै।।
बसैं दंडकारण्य देखै न कोऊ।
जो देखै महा बावरो होय सोऊ।।19।।
कृतघ्नी (कृतघ्न, कर्मनाशक, मुक्तिदाता) कुदाता (कृपण, पृथ्वी का दान कर देने वाला) कुकन्याहि (बुरी कन्या, शवरी इत्यादि; पृथ्वी की कन्या, सीता) चाहै।
हितू नग्र मुंडीन ही हो सदा है।।
अनाथै सुन्यौ मैं अनाथानुसारी।
बसैं चित्त दंडी जटी मुंडधारी।।20।।