किसने कैद किया हमारे जलधारों को / लक्ष्मीकान्त मुकुल
किसने कैद कर डाले हैं हमारे हिस्से के जल स्रोतों को कब के सूख चुके हैं आहर, पोखर, रिसती हुई नदी कुएँ का मीठा जल, चापाकल से छलकता पानी
कोई दैत्य तो हरण नहीं किया हमारे जलधाओं को
ताड़का-सुबाहूँ, शुंभ-निशुंभ
पोथी बांच कर पंडित कहते हैं, अभी नहीं आया नए अवतार का समय
टीवी देखने वाले बच्चे सोच रहे हैं इन दिनों
कहाँ होगा बालवीर, जो पुकारने पर भी नहीं आता जिसने भयंकर परी के चुंगुलों से छुड़ा लाया था मानसूनी बादलों को
वह कहीं परग्रही जीव, हिमालय यति, अरुणाचली लोक कथाओं का खलनायक बकोका या दादी की कहानियों का समुंदर सोख तो नहीं
गड़ेरिया कि भेड़ें बिलख रही हैं दो घूंट के लिए जिनकी आंखों से टपक रहा है खारे समुद्र का जल बधार में चरने गई भैंसें पछाड़ खाती हुई गिर रही हैं मई-जून की प्रचंड तपिश में प्यासी भटकती हुई
गांव-गांव, ताकि अन्ह में उसे मिल जाए
जीभ चटकारने भर पानी
किसने लूटा हमारी धरती की कोख से अमूल्य खजाना जिसे सहेज कर लाई थी वह सदियों से
हमारे कंठ तर करने के लिए
कहते हैं मेरे गाँव की सबसे बुजुर्ग कमला चौधरी
कोई बाहरी दुनिया से नहीं आया है धरती माँ की छाती को छोलने
उसके ही बेटे भेष बदलकर बन चुके हैं दैत्य-दानव बिगड़ैल डॉक्टरों जैसे सुई के सिरिंज से सोख डाले हैं पिपरमिंट की पटवन के नाम पर अमृत सरीखे पृथ्वी के सारे खून-मज्जे,
सूखा डाले हैं उसके स्तनों के दूध
भूमि-पुत्रों ने कटी फसलों के डंठलों को जलाने के नाम पर भून डाला है उसकी देह की चमडियाँ
कहते हैं बड़े-बूढ़े
डभक रही है धरती मां
खुशी में तालियाँ पीट रहे हैं उसके बच्चे
वह रोती है, पर चूते नहीं उसकी आंखों से बूंद
दहकते हैं अंगारे, सूरज की तप्त किरणों से भी तेज!