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कुँवर साँवरो री सजनी! / तुलसीदास

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कुँवर साँवरो, री सजनी! सुन्दर सब अंग |

रोम रोम छबि निहारि आलि बारि फेरि डारि,
कोटि भानु-सुवन सरद-सोम, कोटि अनङ्ग ||

बाम अंग लसत चाप, मौलि मञ्जु जटा-कलाप,
सुचि सर कर, मुनिपट कटि-तट कसे निषङ्ग |

आयत उर-बाहु नैन, मुख-सुखमाको लहै न,
उपमा अवलोकि लोक, गिरामति-गति भङ्ग ||

यों कहि भईं मगन बाल, बिथकीं सुनि जुबति जाल,
चितवत चले जात सङ्ग, मधुप-मृग-बिहङ्ग |

बरनौं किमि तिनकी दसहि, निगम-अगम प्रेम-रसहि,
तुलसी मन-बसन रँगे रुचिर रुपरङ्ग ||