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कैंटी पड़ल हई / जयराम दरवेशपुरी
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कउन तरेंगन उगल मन के आकाश में
बिख घोर रहल अमृत मिठास में
अदमी खा रहल अदमी के खोर के
कैंटी पड़ल हे मानवता ठोर में
सहर सजावे में उजड़ल डिहांस हे
स्वारथ के अखनी लगल होड़ हे
खींचा तानी पकड़ले जोड़ हे
लोभ के अंटारी में इनखर निवास हे
दाग-दाग अदमी के मन लुरेठल हे
स्वाभिमान पर देखऽ कावा लपेटल हे
सुरा सुंदरी के अजगुत रास हे
मीठ जहर से डंसा रहल दुनिया
अदमी अखनी हो गेल निठाह निगुनियाँ
मोती ढुलकि के मिट गेल घास में।
हम बिरहिन मनुआ ही बइठल
दिन दोपहर भिनसार में। नयन जुड़ावऽ
टूटल नेह सम्हारऽ धनुख-बान-सन
पिचकारी से दुसमन मार भगावऽ
बरी फुलउरी भोग लगावऽ
नयका डगर बनावऽ।