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कोयल / गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही'

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काली कुरूप कोयल क्या राग गा रही है,
पंचम के स्वर सुहावन सबको सुना रही है।
इसकी रसीली वाणी किसको नहीं सुहाती?
कैसे मधुर स्वरों से तन-मन लुभा रही है।
इस डाल पर कभी है, उस डाल पर कभी है,
फिर कर रसाल-वन में मौजें उडा रही है।
सब इसकी चाह करते, सब इसको प्यार करते,
मीठे वचन से सबको अपना बना रही है।
है काक भी तो काला, कोयल से जो बडा है,
पर कांव-कांव इसकी, दिल को दु:खा रही है।
गुण पूजनीय जग में, होता है बस, 'सनेही',
कोयल यही सुशिक्षा, सबको सिखा रही है।