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कोलाहल के नाम / काँधों लदे तुमुल कोलाहल / यतींद्रनाथ राही

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कोलाहल के नाम:

फिर बह गयी पाषाण शिलाओं को फोड़कर एक और निर्झरिणी और मैं, पिघल-पिघल कर बहता रहा प्रवाह के साथ क़दम, दर क़दम, कभी रेत पर प्यासे हिरनों की भटकन में जल कण तलाशता, कभी चुप्पियों की गुनगुनाहट में अर्थों के पुष्प-गुच्छ सँवारता, कभी प्यास के समन्दर में, कभी तृप्ति की गहराइयों में। घाटियों में, कछारों में, विजन में, पहाड़ों में। राज पंथों की बहुरंगी चकाचौंध में, तो गाँव की अँधियारी धूल-भरी गलियों में, शान्ति कहाँ थी और प्राप्ति? कहीं भी तो नहीं। अनन्त गन्तव्य, उलझनों का प्रतिपल पसरता महाजाल, आलोक के भ्रम बिखेरते आकाशदीप, शोर भरे सन्नाटे और कन्धों पर लदे तुमुल कोलाहल। घर क,े समाज के, राजनीति के, देश के, विदेश के-कलह, संघर्श, युद्धों से जनित कोलाहल। काँपते आकाश, रक्त-रंजित होते क्षितिज, दरकती धरती, उजियारी साँझें, अँधियारे सबेरे। उलझते-टूटते रिश्तों में प्यार की पुरवाई की कोई शीतल सी लहर, एक भीनी सी महक, प्राणों में उतरती कोई दूरागत वंशी-ध्वनि कहाँ मिली? कभी मिली भी तो क्शण दो क्शण के लिये, तब क्या गाऊँ- प्रभाती प्रयाण-गीत, पांचजन्य-नाद, वासन्तिका, प्रणयगीत, मर्सिया, या फिर चुप बैठ जाऊँ? सन्यास ले लूँ? मृत्यु का वरण भी कैसे हो? गति ही तो जीवन है, निर्जीव कैसे हो जाऊँ? जीना ही जीवन है तो जीभर कर ही जिऊँ। चलना तो पड़ेगा ही सो चल रहा हूँ। चुप रहने भी कौन देता है यहाँ। कभी आम था हरा गाछ, पत्ते सब झड़ गए, कुछ पीले चिपके हैं, कल झड़ जाएँगे वे भी जाने कब किस हवा में। क्या कहूँ उन भोले पथिकों का जो अपत डालों से छाँव की चाह लिये आज भी चले आ रहे हैं, बाँध जाते हैं शतायु कामना की मांगलिक वन्दनवारें सूखी टहनियों पर। ये भी क्या करें बेचारे, पत्थरों को दूध से नहलाने के संस्कारों में जो पले हैं। रोज आकर फूल उलीच जाते हैं ठूँठ पर और मैं जैसे फिर अखुआने लगता हूँ। पुलकित हो जाता हूँ। दूर किसी अमराई की भीनी महक, किसी नवागता कोयल की भीतर तक बेधती कुहक जाने कितने सन्तूर बज उठते हैं पुलकन के तार तार में।

क्या दे दूँ इन्हें? कुछ प्यार, आशीर्वाद, कुछ पुरातन संस्कारों की चाशनी में लिपटी खुरदरे यथार्थ की चनैली रेवड़ियाँ। बड़ी विडम्बना है, सूखे स्रोतों से जीवन का रस निचोड़ने का साहस हुमस तो भरता है ओठों तक आकर गुनगुना भी जाता है पर काँपती उँगलियों में थमी कलम काग़ज़ पर कितना उतारे जितना बन पड़ा सो यह है- 12 जनवरी 16 से 4 अप्रैल 17 तक के सवा साल की उपलब्धि ये 52 गीत 90 से 91 आयु वर्ग की कमाई। पैदाइश कमज़ोर भले हो, इनकी उम्र लम्बी होगी विश्वास है।
आभारी हूँ मेरे प्रेरक मेरे अनन्य और इन गीतों के प्रथम श्रोता भाई देवेन्द्र शर्मा ‘इन्द्र’, भाई मयंक श्रीवास्तव का। भोपाल के छन्द परिवार अन्तरा के साथियों का, उन सब साहित्यिक संस्थाओं का जिनके प्यार, सम्मान और सद्भावनाएँ मेरी बूढ़ी साँसों में जवान आक्सीजन भरते रहे हैं। किसका नाम लूँ और किसे छोड़ दूँ सभी तो मेरे अपने हैं भाई आचार्य रामवल्लभ गीतों के राजा शिवकुमार ‘अर्चन’, अनुज अशोक ‘निर्मल’, सर्वेप्रिय भाई महेश अग्रवाल, भाई राजुकर राज और कितने नाम लूँ।
आभारी हूँ राष्ट्र भाषा प्रचार समिति और हिन्दी भवन न्यास के धुरीण पुरुश, प्रिय आदरणीय भाई कैलाशचन्द्रजी पन्त का, काफी अस्वस्थता और आँखों में परेशानी के बाद भी भूमिका लिखने का कष्ट सहर्श स्वीकार किया।
भाई जंग बहादुर बन्धु तो भोपाल आवास के साथ जुड़े मेरे पहले साहित्यिक मित्र हैं कवर पृष्ठ पर उन्हें साथ लिये बिना कन्धों पर लदा यह कोलाहल अकेला मैं कैसे ढो पाता।
पुत्रवत चि. भवेश ‘दिलशाद’ और मेरी प्रिय शिष्या श्रीमती ममता बाजपेयी दो ऐसे कन्धे हैं जिन पर हाथ रख कर दूरियाँ कम कर लेता हूँ। और बखूबी चल रहा हूँ।
मेरी धर्म पत्नी श्रीमती शीला यादव, बेटे-बेटियाँ-बहुएँ-बच्चे सभी से तो इन गूँगी संवेदनाओं को गीतों की गुनगुनाहट मिली है।


यतीन्द्रनाथ ‘राही’