कल तक जो 
 आन बान और शान थी
कल तक जो  
पाक और पवित्र थी
जो दुनिया के लिए 
मिसाल हुआ करती थी
अचानक क्या हुआ
क्यों उससे उसका ये  ओहदा छिन गया 
कैसे वो मर्यादा 
 अचानक सबके लिए 
अछूत चरित्रहीन हो गयी 
कोई नहीं जानना चाहता
संवेदनहीन ह्रदयों की 
संवेदनहीनता की यही तो 
पराकाष्ठा होती है 
पल में अर्श से फर्श पर  धकेल देते हैं 
नहीं जानना चाहते 
नकाब के पीछे छुपे वीभत्स सत्य को 
क्योंकि खुद बेनकाब होते हैं 
बेनकाब होती है इंसानियत
और ऐसे में यदि
कोई मर्यादा ये कदम उठाती है 
तो आसान नहीं होता  खुद को बेपर्दा करना
ना जाने कितने  घुटन के गलियारों में 
दम तोडती सांसों से समझौता करना पड़ता है
खुद को बताना पड़ता है
खुद को ही समझाना पड़ता है
तब जाकर कहीं  ये कदम उठता है
अन्दर से आती 
दुर्गन्ध में एक बूँद और 
डालनी पड़ती है गरल की 
तेज़ाब जब खौलने लगता है 
और लावा रिसता नहीं 
ज्वालामुखी भी फटता नहीं
तब जाकर परदगी का 
लिबास उतारना  पड़ता है 
करना होता है खुद को निर्वस्त्र
एक बार नहीं बार-बार
हर गली में
हर चौराहे पर
हर मोड़ पर
तार-तार हो जाती है आत्मा 
लहूलुहान हो जाता है आत्मबल 
जब आखिरी दरवाज़े पर भी 
लगा होता है एक साईन बोर्ड 
सिर्फ इज्जतदारों को ही यहाँ पनाह मिलती है
जो निर्वस्त्र हो गए हों
जिनका शारीरिक या मानसिक 
बलात्कार हुआ हो 
वो स्वयं दोषी हैं यहाँ आने के
यहाँ बलात्कृत आत्माओं की रूहों को भी
सूली पर लटकाया जाता है
ताकि फिर यहाँ आने का गुनाह ना कर सकें
इतनी ताकीद के बाद भी
गर कोई ये गुनाह कर ही दे
तो फिर कैसे बच सकता है
बलात्कार के जुर्म से
अवमानना करने के जुर्म से
जहाँ पैसे वाला ही पोषित होता है
और मजलूम पर ही जुल्म होता है
ये जानते हुए भी कि साबित करना संभव नहीं
फिर भी आस की आखिरी उम्मीद पर
एक बार फिर खुद को बलात्कृत करवाना
शब्दों की मर्यादाओं को पार करती बहसों से गुजरना
अंग-प्रत्यंग पर पड़ते कोड़ों का उल्लेख करना 
एक-एक पल में हजार-हजार मौत मरना
खुद से इन्साफ करने के लिए
खुद पर ही जुल्म करना 
कोई आसान नहीं होता 
खुद को हर नज़र में 
"प्राप्तव्य वस्तु" समझते देखना 
और फिर उसे अनदेखा करना 
हर नज़र जो चीर देती है ना केवल ऊपरी वस्त्र
बल्कि रूह की सिलाईयाँ भी उधेड़ जाती हैं 
उसे भी सहना कुछ यूँ 
जैसे खुद ने ही गुनाह किया हो 
खरोंचों पर दोबारा लगती खरोंचें 
टीसती भी नहीं अब 
क्योंकि 
जब स्वयं को निर्वस्त्र स्वयं करना होता है
सामने वालों की नज़र में 
शर्मिंदगी या दया का कोई अंश भी नहीं दिखता
दिखता है तो सिर्फ 
वासनात्मक लाल डोरे आँखों में तैरते 
उघाड़े जाते हैं अंतरआत्मा के वस्त्र
दी जाती हैं दलीलें पाक़ साफ होने की 
मगर कहीं कोई सुनवाई नहीं होती
होता है तो सिर्फ एक अन्याय जिसे 
न्याय की संज्ञा दी जाती है 
इतना सब होने के बावजूद भी 
मगर नहीं समझा पाती किसी को 
नहीं साक्ष्य उपलब्ध करवा पाती 
और हार जाती है 
निर्वस्त्र हो जाती है खोखली मर्यादा
और हो जाता है हुक्म 
चढ़ा दो सूली पर
दे दो उम्र कैद पीड़ित मर्यादा को 
ताकि फिर कोई खरोंच ना इतनी बढे 
ना करे इतनी हिम्मत 
जो नज़र मिलाने की जुर्रत कर सके 
आसान था उस पीड़ा से गुजरना शायद 
तब कम से कम खुद की नज़र में ही 
एक मर्यादा का हनन हुआ था
मगर अब तो मर्यादा की दहलीज पर ही 
मर्यादा निर्वस्त्र हुई थी प्रमाण के अभाव में 
और अट्टहास कर रही थी सुना है कोई 
आँख पर पट्टी बाँधे हैवानियत की चरम सीमा
ये खोखले आदर्शों की जमीनों के ताबूत की आखिरी कीलों पर 
मौत से पहले का अट्टहास सोच की आखिरी दलदल तो नहीं 
किसी अनहोनी के तांडव नृत्य का शोर यूँ ही नहीं हुआ करता 
गर संभल सकते हो तो संभल जाओ