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खिलौनों के कारखाने का मजदूर / मुकेश निर्विकार

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वे, सचमुच,
बेहद सुंदर हैं
और लुभावने भी,
फिर क्यों न मचल उठे
देखकर उन्हें
कोई भी बच्चा
कैसे न हो उठे अधीर
किसी भी माँ का लाल!

हैं ही ऐसे मनमोहक, आकर्षक
ये खिलौने
बच्चों के-
कुत्ते, बिल्ली, बंदर, भालू, मोटर-कार, पी-पी...

सोचता हूँ:
जो लोग/करते हैं मजदूरी
खिलौनों के कारखानों में
क्या वे दे पाते हैं/खुद भी/
खिलौने
अपने बच्चों को!
या रह जातीं हैं सिर्फ
दिल में/ मसोस कर
उनकी हसरतें!

रह-रह कर
उफान तो जरूर लेता होगा
उनके दिल का लाचार ज्वार...
या-
महीने की जरूरतों,
दावा-दारू और
‘नोन-तेल-लकड़ी’ के जुगाड़ में
दूर कहीं गुम जाता होगा
‘छोटू’ का खिलोना...

लौटकर घर
देर-रात में
सोते अपने बच्चे को
पुचकार कर रह जाता होगा
कोई बेबस,
लाचार बाप!