गीत ऐसा कि जैसे कमल चाहिये
उसपे भँवरों का मंडराता दल चाहिये
एक दरिया है नग़्मों का बहता हुआ
उसके साहिल पे शामे-ग़ज़ल चाहिये
जिसको जी भर के हम जी सकें,वो हमें
शोख़, चंचल, मचलता-सा पल चाहिये
और किस रोग की है दवा शाइरी
कुछ तो मेरी उदासी का हल चाहिये
ख़ैर, दो-चार ही की न ‘महरिष’ हमें
हम को सारे जहाँ की कुशल चाहिये.