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गीत — वह रात अमर / जगदीश गुप्त

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वह रात अमर ।
आलोक-तरल नभ,
रश्मि-खचित लहराता वासव का
दुकूल ।

छितरे तारक,
अधखुली शची की वेणी के
अधखिले फूल ।
छवि सघन कुंज
भोले-भाले तरु खड़े स्वर्ग के प्रहरी से ।

ऐरावत के कानों जैसे,
हिलते कदली के पात
                      अमर ।
वह रात अमर ।

तम की अलकों को बिखराकर
बह चली
भुरहरे की बतास;
निशि के अधरों पर
उतर रहा
अधजगे प्रात का सहज हास ।

मुन्द जाते दोनों दृग
अनन्त सपनों का सौरभ भार लिए ।
आभा की किरनों से
छूकर,
खिलते सुधि के जलजात
                          अमर ।
वह रात अमर ।