भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
घरौंदा / एम० के० मधु
Kavita Kosh से
एक स्त्री
अपने जीवन के
मध्याह्न पायदान पर
घरौंदा-घरौंदा खेलती है
खुद बनाती है
रंगों से सजाती है
फिर बड़ी बेरहमी से तोड़ देती है
यह खेल वह
बार-बार दुहराती है
लोग बोलते हैं
उसके अन्दर
कोई नटखट बच्चा घुस गया है
मैं बोलता हूं
उसका दिमाग
किसी शातिर महाजन के यहां
गिरवी हो गया है।