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चाहा जो ज़िंदगी से कभी वो मिला नहीं / सिया सचदेव

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चाहा जो ज़िंदगी से कभी वो मिला नहीं
लिक्खा नसीब का था ये मेरी ख़ता नहीं

कितनी उदास शाम है उनके बग़ैर ये
शायद हमारे हाल उनका पता नहीं

खुद ही वो रूठता है मनाता है खुद मुझे
थोड़ा तुनक मिज़ाज है दिल का बुरा नहीं

किस बात का ग़ुरूर है की पुतला है खाक़ का
बंदा किसी भी हाल में होगा ख़ुदा नहीं

होगा मेरा न है वो किसी तौर भी सिया
लेकिन मैं क्या करू की ये दिल मानता नही