भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

छनो भर खातिर / लक्ष्मीकान्त मुकुल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उनुका लगे ना रहे
कौनो टाट के मड़ई
आ फूंस-मूंजन के खोंता

ऊ चिरई ना रहन
भा कौनो फेंड़-रूख
हरवाहीं से लौटत ऊ एगो मजूर रहन

भसभसा के गिरेला
जइसे पुअरा के छान्हि
धमका भइला से ओही तरी
लूढ़ेरा गइल रहन ऊ
पोखरा के पिंड़ी पर

ओह ! छनो भर खातिर
ऊखी में के लुकाइल दनवा-दूत
बन के देले रहीत आपन बनूक
कुछऊ बन गइल रहितन ऊ
आन्ही-बुनी भा खर-पतवार
तनीको देरि खातिर
बुला हो गइल रहीत मुँहलुकान