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जगती के जन पथ, कानन में / सुमित्रानंदन पंत

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जगती के जन पथ, कानन में
तुम गाओ विहग! अनादि गान,
चिर शून्य शिशिर-पीड़ित जग में
निज अमर स्वरों से भरो प्राण।
जल, स्थल, समीर, नभ में मिलकर
छेड़ो उर की पावक-पुकार,
बहु-शाखाओं की जगती में
बरसा जीवन-संगीत प्यार।

तुम कहो, गीत-खग! डालों में
जो जाग पड़ी कलियाँ अजान,
वह विटपों का श्रम-पूण्य नहीं
वह मधु का मुक्त, अनन्त-दान!
जो सोए स्वप्नों के तम में
वे जागेंगे--यह सत्य बात,
जो देख चुके जीवन-निशीथ
वे देखेंगे जीवन-प्रभात!

रचनाकाल: मई’१९३५