भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जलाया आप हमने ज़ब्त कर कर आह-ए-सोज़ाँ को / ज़फ़र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


जलाया आप हमने, जब्त कर-कर आहे-सोजां<ref>जलती हुई आहें</ref> को
जिगर को, सीना को, पहलू को, दिल को, जिस्म को, जां को

हमेशा कुंजे-तन्हाई<ref>अकेलापन</ref> में मूनिस<ref>सहायक</ref> हम समझते है
अलम<ref>दर्द</ref> को, यास<ref>चमेली</ref> को, हसरत को, बेताबी को, हुरमां को

जगह किस-किस को दूं दिल में, तेरे हाथों से ऐ कातिल
कटारी को, छुरी को, बांक को, खंजर को, पैकां<ref>तीर</ref> को

न हो जब तू ही ऐ साकी, भला फिर क्या करे कोई
हवा को, अब्र<ref>बादल</ref> को, गुल को, चमन को, सहन-ए-बस्तां<ref>उपवन</ref> को

नही कुलकुल<ref>बोतल से मदिरा गिरने का स्वर</ref> दुआ देता है शीशा दम-ब-दम साकी
सुबू<ref>प्याला</ref> को, खूम<ref>मटका</ref> को, मय को, मयकदा को, मयपरस्तां<ref>शराबी</ref> को

तुझे दिल दे के मैं ऐ काफिरे-बेमहर<ref>निष्ठुर</ref> खो बैठा
खिरद<ref>बुद्धि</ref> को, होश को, ताकत को, जी को, दीना ईमां को,

बनाया ऐ ‘जफर’ खालिक<ref>ईश्वर</ref> ने जब इन्सान से बेहतर
मलक<ref>देवता</ref> को, देव को, जिन को, परी को, हूरो-गिलमां<ref>रूपसियां</ref> को

शब्दार्थ
<references/>