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ज़माना गुज़रा है तूफ़ान-ए-ग़म उठाए हुए / 'मुमताज़' मीरज़ा
Kavita Kosh से
ज़माना गुज़रा है तूफ़ान-ए-ग़म उठाए हुए
ग़ज़ल के पर्दे में रूदाद-ए-दिल सुनाए हुए
हमीं थे जिन सु गुनाह-ए-वफ़ा हुआ सरज़द
खड़े हैं दार के साए में सर झुकाए हुए
हमारे दिल के सभी राज़ फ़ाश करते हैं
झुकी झुकी सी नज़र होंट कपकपाए हुए
हमारे दिल के अँधरों का ग़म न कर हम-दम
हमारे दम से ये रास्ते हैं जगमगाए हुए
शुमार-ए-रोज़-ओ-शब-ओ-माह किस ने रक्खा है
हज़ारों साल हुए उन को दिल में आए हुए
गुज़रते रहते हैं नज़रों से सारी शब ‘मुमताज’
हज़ारों क़ाफ़िले यादों के सर झुकाए हुए