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ज़िन्दगी / ज़िन्दगी को मैंने थामा बहुत / पद्मजा शर्मा

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ज़िन्दगी बड़ी मछली है
खुशी के पल हैं छोटी-छोटी मछलियाँ
ज़िन्दगी चुपचाप इन्हें कब निगल जाती है
पता ही नहीं चलता
जान पाते हैं तब तक
सब कुछ नष्ट हो चुका होता है
और एक दिन खुद ज़िन्दगी ही
ज़िन्दगी से कहीं दूर बहुत दूर
चुपचाप
जा चुकी होती है

कभी-कभी ज़िन्दगी ऐसी चाल चलती है
कि सारा विश्वास
सारा प्यार
पलक झपकते ही
बाढ़ आई नदी में
मिट्टी की तरह कट कर बह जाता है
देखते ही देखते इन आँखों के सामने
सब कुछ खत्म हो जाता है
सारा प्यारा सारा विश्वास ज़िन्दगी से
और ज़िन्दगी तरसती रह जाती है
एक अच्छी-सी ज़िन्दगी के लिए

ज़िन्दगी की नदी
कभी इतनी निर्दयी हो जाती है
कि उससे पलटकर पूछो
कि यहाँ अभी-अभी
एक गाँव था खुशहाल
खिलखिलाता हुआ हरा-भरा
एक बच्च्चा था हँसता हुआ
एक फूल था खिलता हुआ
एक चिडिय़ा थी चहकती हुई
एक चूल्हा था जलता हुआ
वो सब क्या हुआ
जीवन की नदी हृदय विदारक हँसी हँसती है
पलटकर आपसे ही पूछती है
कौनसा गाँव, कौनसा बच्चा, कौनसा फूल, कौनसी चिडिय़ा
और फिर अनजान की तरह
आपको अकेला असहाय बेसहारा छोड़
जाने किधर की राह लेती है ज़िन्दगी

ज़िन्दगी को मैंने रो कर पकड़ा
ज़िन्दगी को मैंने हँसकर पकड़ा
ज़िन्दगी को मैंने कसकर पकड़ा
ज़िन्दगी को मैंने थामा बहुत
बहुत रोका पर वो रुकी तभी तक
जब तक उसे रुकना था
ज़िन्दगी रोके नहीं रुकती
पर इंसान भी तो जि़द्दी होता है
वह उसकी उंगली बार-बार पकड़ता है
और वह है कि हर बार उंगली छुड़ाकर भाग जाती है
ज़िन्दगी भागती है भगाती भी है
हँसाती है रुलाती भी है
और एक दिन खुद ज़िन्दगी ही ज़िन्दगी के सामने
मौत बनकर खड़ी हो जाती है
हैरान हम समझ ही नहीं पाते
ज़िन्दगी मौत का पता ढूंढ रही थी
कि मौत ज़िन्दगी का

ज़िन्दगी ने यूं तो बहुत कुछ दिया
उम्र दी, अपना एक चेहरा दिया
उदासियाँ, बेचैनियाँ दीं, रास्ते दिए, मंजि़लें दीं
करने को कुछ काम भी दिए
दिया बहुत पर इस तरह
जैसे कि बारिश के महीने में दम घोटूं उमस
मई में कड़ाके की ठण्ड-सी
दिया बहुत लेकिन समय पर ज़रूरत पूरी न हुई
ज़रूरत पर न मिले तो फिर उसकी ज़रूरत ही कहाँ रह जाती है
झुलसे-जले उखड़े पेड़ को कोई देता हो पानी जैसे
इस तरह ज़िन्दगी ने दिया
पर दिया क्या यह तो लेना हो गया
लेना भी क्या यह तो ज़िन्दगी में ज़िन्दगी का ही उपहास हो गया
जैसे ज़िन्दगी एक परीक्षा है जिसे हम देते रहें
जिसका न कोई सिलेबस है
न कोई तय प्रश्न ही
न कोई स्थान नियत है न कोई समय
आपको देते ही रहना है जैसे कि आप कुछ हैं ही नहीं
जो कुछ है समय ही है
आप तो बस देते रहें एक परीक्षा के बाद दूसरी
दूसरी के बाद तीसरी
ज़िन्दगी में ज़िन्दगी भर

ज़िन्दगी अपने आप में एक सवाल है
ऐसा सवाल जिसका जवाब
खुद उसके पास भी नहीं है
अनुत्तरित सवालों का ज़खीरा ही तो है ज़िन्दगी
सवालों के जवाब खोजते-खोजते बीत जाती है उम्र
और सवाल ज्यों के त्यों रह जाते हैं अनुत्तरित
अनसुलझे सवालों को लिए आदमी
दर-दर भटकता रहता है साँसों के साथ
प्राणों के साथ अपने आपके साथ इसके पास उसके पास
कोई भी आदमी दे नहीं पाता उन सवालों के माकूल जवाब
कि हर आदमी लिए फिरता है सवाल दर सवाल
और एक दिन बन जाता है खुद एक ऐसा सवाल
जिसका ज़िन्दगी दे नहीं पाती कोई जवाब

क्या ज़िन्दगी एक सवाल है
तो मौत ही है उसका एक मात्र जवाब

ज़िन्दगी न रुकती है न थकती है
निरंतर बहती रहती है नदी की तरह
पहाड़-घाटी-बीहड़-जंगल-खेत-खलिहान-बस्ती
सबको पार करती हुई
पर एक दिन जब अपने से ही पार चली जाती है ज़िन्दगी
वहाँ से लौट-लौट आना चाहती है
पर कहाँ लौट पाती है
चाहतों-हसरतों भरी ज़िन्दगी
सारे सपनों सारी आकांक्षाओं
सारे समयों-अतीत-वर्तमान-भविष्य
को लांघती हुई ऐसे समय में ठहर जाती है ज़िन्दगी
जहां सब समय रुक जाते हैं
जहां से आगे न कोई जाता है
न कोई वहाँ से आता है
कोई जान न पहचान
कोई अपना न पराया
तेरा न मेरा, ईर्ष्या न द्वेष
रुदन न हँसी, रात न दिन
एक ठंडे ठहराव में ठहर जाती है ज़िन्दगी
तब खुद को खुद भी कहाँ पहचान पाती है ज़िन्दगी
तब क्या क्यों कहाँ कब कैसे जैसे सारे प्रश्न
अनंत काल की खोह में समा जाते हैं
फिर वहाँ से न कोई सवाल उठता है न कोई जवाब
बस एक जमी हुई ख़ामोशी धुएँ-सी उठती है
और वही ख़ामोशी फिर जम जाती है
परत दर परत काल दर काल
कोई नहीं जान पाता कि तब आवाज़ें कहाँ गुम जाती हैं
और प्राण पीवा ख़ामोशी कहाँ से सरकती हुई
पीवणे साँप-सी चली आती है
पी जाती है चुपचाप आदमी की ज़िन्दगी
ज़िन्दगी नहीं ठहरती, समय नहीं ठहरता
वो तो हम हैं जो समय में ठहर जाते हैं और समय हम में
ज़िन्दगी को ज़िन्दगी से थोड़ा दूर जाकर
उसके भीतर और भीतर उतरकर देखो
ब्रह्माण्ड रुका हुआ है समय में
ब्रह्माण्ड बह रहा है समय में
इस क्षण बहना, उस क्षण रुकना
पहाड़ों समन्दरों ज्वालामुखियों ग्लेशियरों का
हर पल बनना-बिगडऩा
ये ही तो हैं समय की साँसें
जिनका चलता रहता है उठना-गिरना
पल-पल कितना कुछ बन जाता है इन साँसों में
कितना कुछ बिगड़ जाता है इस ज़िन्दगी में
साँसों की भयावह उठापटक से

ज़िन्दगी नहीं हँसती, ज़िन्दगी नहीं रोती
वो तो हम हैं जो रोते हैं, हँसते हैं
पर क्या ज़िन्दगी में हम और हम में ज़िन्दगी नहीं होती
मानो तो ज़िन्दगी में ज़िन्दगी है
मानो तो आस में आस है
साँस में साँस है हँसी में खुशी है
यूं मानो तो सब कुछ है ज़िन्दगी में
पर न मानो तो होकर भी कुछ नहीं
कुछ भी नहीं
सिवाय कहने के कि ' ज़िन्दगी है’
भले ही वह मौत से बदतर है
सोचो तो सबकी अपनी-अपनी ज़िन्दगी है
ज़िन्दगी में सबकी अपनी-अपनी मौत है
पर हाँ, मरना है
तो ही इस तरह सोचो
जीना है तो सिर्फ जी लो भरपूर
इस ज़िन्दगी को कुछ-कुछ इसी तरह
जानते पहचानते हुए जीना ही बेहतर है
कौन जाने कब ज़िन्दगी से ज़िन्दगी खो जाए
और ज़िन्दगी हँसते-हँसते अचानक किसी दिन रो जाए
देखते ही देखते ज़िन्दगी मौत से बुरी हो जाए