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जाके लगे गृहकाज तजे अरु मातु पिता हित नात न राखै / अज्ञात कवि (रीतिकाल)

जाके लगे गृहकाज तजे अरु मातु पिता हित नात न राखै ।
सागर लीन ह्वै चाकर चाह के धीरज हीन अधीर ह्वै भाखै ।
ब्याकुल मीन ज्योँ नेह नवीन मेँ मानो दई बरछीन की साखै ।
तीर लगै तरवारि लगै पै लगै जनि काहूँ सोँ काहू की आँखै ।


रीतिकाल के किन्हीं अज्ञात कवि का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।