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जाड़े की शाम / अलेक्सान्दर पूश्किन

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»  जाड़े की शाम

नभ को ढकता धुंध, तिमिर से
बर्फ़ उड़ाता, अंधड़ आता,
शिशु-सा कभी मचलता, रोता
कभी दरिन्दे-सा चिल्लाता,
टूटे-फूटे छप्पर का वह
सहसा सूखा फूस हिलाता,
और कभी भटके पंथी-सा
आ खिड़की का पट खटकाता।

जर्जर, टूटा हुआ झोंपड़ा
सूना, जहाँ अन्धेरा छाया,
बैठी हुई निकट खिड़की के
क्यों तुम चुप हो बूढ़ी आया?
क्या इस अन्धड़, कोलाहल ने
मेरी प्यारी तुम्हें थकाया?
या चरखे की घूँ-घूँ ने ही
लोरी देकर तुम्हें सुलाया?
मेरे इस सूने यौवन की
मात्र संगिनी, लाओ प्याला,
सब दुख-दर्द डुबोएँ उसमें
और हृदय हर्षाए हाला,
सागर पार चैन से चिड़िया
रहती थी, यह गीत सुनाओ,
कैसे प्रातः पानी लाने
जाती थी युवती यह गाओ।

नभ को ढकता धुंध, तिमिर से
बर्फ़ उड़ाता, अंधड़ आता,
शिशु-सा कभी मचलता, रोता
कभी दरिन्दे-सा चिल्लाता,
मेरे इस सूने यौवन की
मात्र संगिनी, लाओ प्याला,
सब दुख-दर्द डुबोएँ उसमें
और हृदय हर्षाए हाला।


रचनाकाल : 1825