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जाती हुई सदी का नाम मैं रखूँगा गटर / ज्योति खरे

लगता है
सागर के पानी में घुल गया ज़हर
मरी मछलियों की मुर्दा गाड़ी-सी
हर एक लहर

मौसम का
भेद अब खुलने लगा है
लीपापोती का रंग सब धुलने लगा है
जाती हुई सदी का नाम मैं
रखूँगा गटर

सम्वेदन सहसा
ही मूक बधिर हो गया है
समय या तो मन्दिर या मस्जिद हो गया है
दोनों की एक कथा क्या गाँव,
क्या शहर