Last modified on 16 मई 2011, at 08:46

जानकी -मंगल / तुलसीदास/ पृष्ठ 24

।।श्रीहरि।।
    
( जानकी -मंगल पृष्ठ 24)

अयोध्या में आनंद -1

 ( छंद 177 से 184 तक)

पंथ मिले भृगुनाथ हाथ फरसा लिये।
 डाटहिं आँखि देखाइ कोप दारून किए।177।

राम कीन्ह परितोष रोष रिस परिहरि।
चले सौंप सारंग सुफल लोचन करि।।

रघुबर भुज बल देखि उछाह बरातिन्ह।
मुदित राउ लखि सनमुख बिधि सब भाँतिन्ह।।

एहि बिधि ब्याहि सकल सुत जग जसु छाायउ।
मग लोगन्हि सुख देत अवधपति आयउ।।

होहिं सुमंगल सगुन सुमन सुर बरषहिं।
नगर कोलाहल भयउ नारि नर हरषहिं।।

घाट बाट पुर द्वार बजार बनावहिं।
बीथीं सींचि सुगंध सुमंगल गावहिं।।

 चौंकैं पुरैं चारू कलस ध्वज साजहिं।
 बिबिध प्रकार गहागह बाजन बाजहिं।।

बंदन वार बितान पताका घर घर।
रोपे सफल सपल्लव मंगल तरूबर।।

(छंद-23)

मंगल बिटप मंजुल बिपुल दधि दूब अच्छत रोचना।
भरि थार आरति सजहिं सब सारंग सावक लोचना।।

 मन मुदित कौसल्या सुमित्रा सकल भूपति-भामिनी।
सजि साजु परिछन चलीं रामहिं मत्त कुंजर -गामिनी।23।
(इति जानकी-मंगल पृष्ठ 24)

अगला भाग >>