जानकी -मंगल/ तुलसीदास / पृष्ठ 23
।।श्रीहरि।।
( जानकी -मंगल पृष्ठ 23)
बारात की बिदाई -2
( छंद 169 से 176 तक)
परे निसानहिं घाउ राउ अवधहिं चले।
सुर गन बरषहिं सुमन सगुन पावहिं भले।।169।।
जनक जानकिहि भेटि सिखाइ सिखावन।
सहित सचिव गुर बंधु चले पहुँचावन।।
प्रेम पुलकि कहि राय फिरिय अब राजन।
करत परस्पर बिनय सकल गुन भाजन। ।
कहेउ जनक कर जोरि कीन्ह मोहि आपन।
रघुकुल तिलक सदा तुम उथपन थापन।।
बिलग न मानब मोर जो बोलि पठायउँ।
प्रभु प्रसाद जसु जानि सकल सुख पायउँ।।
पुनि बसिष्ठ आदिक मुनि बंदि महीपति।
गहि कौसिक के पाइ कीन्ह बिनती अति।।
भाइन्ह सहित बहोरि बिनय रघुबीरहि।
गदगद कंठ नयन जल उर धरि धीरहिं।।
कृपा सिंधु सुख सिंधु सुजान सिरोमनि।
तात समय सुधि करबि छोह छाड़ब जनि।।
(छंद-22)
जनि छोह छाड़ब बिनय सुनि रघुबीर बहु बिनती करी।
मिलि भेटि सहित सनेह फिरेउ बिदेेह मन धीरज धरी।।
सो समौ कहत न बनत कछु सब भुवन भरि करूना रहे।
तब कीन्ह कोसलपति पयान निसान बाजे गहगहे।22।
(इति जानकी-मंगल पृष्ठ 23)