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जाल / ज़िन्दगी को मैंने थामा बहुत / पद्मजा शर्मा
Kavita Kosh से
मैं सदियों से जिस जाल में फँसी हूँ
वह कई जालों में से एक जाल है
जिसे पुरखों ने मेरे लिए खास बनाया था
इस जाल को जितना तोडऩे का प्रयास करती हूँ
उतना ही उसमें जकड़ती चली जाती हूँ
मेरे पुरखों का खून किसी न किसी मेरे परिवारजन में
आज भी दौडऩे लगता है तेज़ी से
जब देखते हैं मुझे कि मैं आज़ाद हो रही हूँ
कि मैं इंसान हो रही हूँ
मैं गुलामी के एक जाल से निकलती भी हूँ तो क्या
तत्काल ही दूसरे उससे भी बड़े किसी अन्य जाल में फँस जाती हूँ
कदम-कदम पर नए शिकारी और नए-नए जाल पाती हूँ
फिर भी जालों से मुक्त होने की कोशिश करती रही हूँ
करती रहूँगी जब तक जीवित रहूँगी मैं