Last modified on 20 अक्टूबर 2017, at 16:13

जाल / ज़िन्दगी को मैंने थामा बहुत / पद्मजा शर्मा

मैं सदियों से जिस जाल में फँसी हूँ
वह कई जालों में से एक जाल है
जिसे पुरखों ने मेरे लिए खास बनाया था
इस जाल को जितना तोडऩे का प्रयास करती हूँ
उतना ही उसमें जकड़ती चली जाती हूँ
मेरे पुरखों का खून किसी न किसी मेरे परिवारजन में
आज भी दौडऩे लगता है तेज़ी से
जब देखते हैं मुझे कि मैं आज़ाद हो रही हूँ
कि मैं इंसान हो रही हूँ

मैं गुलामी के एक जाल से निकलती भी हूँ तो क्या
तत्काल ही दूसरे उससे भी बड़े किसी अन्य जाल में फँस जाती हूँ
कदम-कदम पर नए शिकारी और नए-नए जाल पाती हूँ
फिर भी जालों से मुक्त होने की कोशिश करती रही हूँ
करती रहूँगी जब तक जीवित रहूँगी मैं