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जिधर हवा हो उधर ही वो जा निकलता है / मेहर गेरा
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जिधर हवा हो उधर ही वो जा निकलता है
उसे ये वहम कि वो तेज़-तेज़ चलता है
दबेज़ धुंध-सी फैली हुई है हर जानिब
हमारे शहर में सूरज कहां निकलता है
वो बार-बार बनाता है एक ही तस्वीर
हरेक बार फ़क़त रंग ही बदलता है
ग़ज़ाले-वक़्त बहुत तेज़-रौ सही लेकिन
कहां पे जाये कि जंगल तमाम जलता है
अजीब बात है जाड़े के बाद फिर जाड़ा
मेरे मकान में मौसम कहां बदलता है
जो जलती रुत में भी देता रहा है छांव खुनक
वो पेड़ आज मगर बर्ग-बर्ग जलता है
चलो न मेहर यूँ ही देखकर हसीं मंज़र
ये रास्ता किसी जंगल में जा निकलता है।