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जिनके खातिर / प्रेमशंकर रघुवंशी

Kavita Kosh से
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जिनके ख़ातिर सुबह न जानी, शाम न जानी जिनके ख़ातिर
उनके अब ये हाल आज तक, दिन-दिन भर ग़ाली देते हैं ।

अपने मुँह का कौर खिलाकर, जिनको संकटमें पाला
जिनके मन के अंधकार में, फैलाया नित उजियाला
जिनके ख़ातिर भूख न जानी, प्यास न जानी जिनके ख़ातिर
उनके अब ये हाल आजकल, छक-छक कर ग़ाली देते हैं ।

जिनको सुख में, दुख में हमने, पल-पल पूरा साथ दिया
जहाँ ज़रूरत पड़ी हमारी, खुलकर अपना हाथ दिया
जिनके ख़ातिर ख़ुशी न जानी, ग़म न जाना जिनके ख़ातिर
उनके अब ये हाल आजकल, जी भर के ग़ाली देते हैं ।

अपनी हस्ती मिटा-मिटा कर, जिनके मस्तक सदा उठाए
जिन पर हमने हँसते-हँसते, अपने स्वर्णिम प्रहर लुटाए
जिनकी ख़ातिर लाभ न जाना, हानि न जानी जिनके ख़ातिर
उनके अब ये हाल आजकल, नगद-नगद ग़ाली देते हैं ।