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जिन्दगी दर्द की इक लम्बी सज़ा लगती है / सूफ़ी सुरेन्द्र चतुर्वेदी
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जिन्दगी दर्द की इक लम्बी सज़ा लगती है ।
न दवा लगती है ना कोई दुआ लगती है ।
जबसे महबूब ने फेरी है निग़ाहें मुझसे,
जिस्म से मुझको मेरी जान जुदा लगती है ।
एक लम्हा भी मुझे पास नहीं बैठाती,
मेरी तन्हाई भी अब मुझसे ख़फ़ा लगती है ।
किस तरह जिस्म के मौसम से बचाऊँ ख़ुद को,
अब तो साँसों से भी ज़ख्मों को हवा लगती है ।
मैं ख़तावार नहीं हूँ ये ख़बर है लेकिन,
वो जो रोता है मुझे मेरी ख़ता लगती है ।
जानकर बात ये हँसता है मुक़द्दर मेरा,
चोट इक जैसी मुझे कितनी दफ़ा लगती है ।
मुझको दूरी में भी एहसास दुआ देते हैं,
बात ये उसकी मुझे सबसे जुदा लगती है ।