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जिस पे तेरी शमशीर नहीं है / 'कैफ़' भोपाली
Kavita Kosh से
जिस पे तेरी शमशीर नहीं है
उस की कोई तौक़ीर नहीं है
उस ने ये कह कर फेर दिया ख़त
ख़ून से क्यूँ तहरीर नहीं है
ज़ख्म-ए-ज़िगर में झाँक के देखो
क्या ये तुम्हारा तीर नहीं है
ज़ख़्म लगे हैं खुलने गुल-चीं
ये तो तेरी जागीर नहीं है
शहर में यौम-ए-अमन है वाइज़
आज तेरी तक़रीर नहीं है
ऊदी घटा तो वापस हो जा
आज कोई तदबीर नहीं है
शहर-ए-मोहब्बत का यूँ उजड़ा
दूर तलक तामीर नहीं है
इतनी हया क्यूँ आईने से
ये तो मेरी तस्वीर नहीं है