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जीवन के खेल में साँस रखी दाँव / ज्योति खरे
Kavita Kosh से
दहशत की
धुन्ध से घबराया गाँव
भगदड़ में भागी धूप
और छाँव
अपहरण
गुण्डागिरी, खेत की सुपारी
दरकी ज़मीन पर मुरझी फुलवारी
मिट्टी को पूर रहे छिले
हुऐ पाँव
कटा फटा
जीवन खूँटी पर लटका
रोटी की खातिर गली-गली भटका
जीवन के खेल में साँस
रखी दाँव
प्यासों का
सूखा इकलौता कुआँ
उड़ रहा लाशों का मटमैला धुआँ
चुल्लू भर झील में डूब
रही नाँव