जौहर / श्यामनारायण पाण्डेय / दरबार / पृष्ठ २
रवि से रवि की प्रभा छीनना,
दाँत क्रुद्ध नाहर के गिनना।
जितना कठिन असंभव, उससे
अधिक असंभव उसका मिलना॥
प्राण हथेली पर ले, अहि के
मुख से लप - लप जीभ निकालें।
कभी भूलकर पर साँपिन के
बिल में अपना हाथ न ड़ालें॥
विधि से आधा राज बँटा लें,
मत्त सिंह की नोच सटा लें।
बार बार पर मैं कहता हूँ,
उससे अपना चित्त हटा लें॥
साध्वी परम – पुनीता है वह,
रामचंद्र की सीता है वह।
अधिक आपसे और कहें क्या,
रामायण है गीता है वह॥
कूद आग में जल जाएगी,
गिरि से गिरकर मर जाएगी।
मेरा कहना मान लीजिए,
पर न हाथ में वह आएगी॥
नभ – तारों को ला सकते हैं,
अंगारों को खा सकते हैं।
गिरह बाँध लें, मैं कहता हूँ,
लेकिन उसे न पा सकते हैं॥
सुनते ही यह, अधिक क्रोध से
दोनों आँखें लाल हो गईं।
तुरत अलाउद्दीन क्रूर की
भौंहें तनकर काल हो गईं॥
प्रलय – मेघ सा गरज उठा वह,
राजशिविर को घर समझा है।
बोल उठा जो वैरी सा तू,
क्या मुझको कायर समझा है॥
चाहूँ तो मैं अभी मृत्यु के
लिए मृत्यु - संदेश सुना दूँ।
महाकाल के लिए, कहो तो
फाँसी का आदेश सुना दूँ॥
अभी हवा को भी दौड़ाकर
धर लूँ, धरकर मार गिराऊँ।
पर्वत – सिंधु – सहित पृथ्वी को
अपने कर पर आज उठाऊँ॥
अभी आग की देह जला दूँ
पानी में भी आग लगा दूँ।
अभी चाँद सूरज को नभ से
क्षण में तोड़ यहाँ पर ला दूँ॥
महासिंधु की वेला तोडूँ,
भू पर पानी – पानी कर दूँ।
जल में थल में नभ में अपनी
अभी कहो मनमानी कर दूँ॥
बढ़ी हुई सावन भादों की
गंगा की भी धार फेर दूँ।
अभी कहो बैठे ही बैठे
सारा यह संसार घेर लूँ॥
अभी हिमालय विंध्याचल को
चूर चूरकर धूल बना दूँ।
कहो सुई को रुई बना दूँ,
पत्थर को भी फूल बना दूँ॥
दिनकर कर से हिम बरसाऊँ,
हिमकर से अंगार चुवाऊँ।
अभी कहो तो एक फूँक से
बड़वानल की आग बुझाऊँ॥
नभ को मैं पाताल बना दूँ,
भू को मैं आकाश बना दूँ।
अभी कहो तो नाच नचाकर
सारे जग को दास बना दूँ॥
क्रोध देखकर खिलजी का सब
काँप उठे सैनिक - दरबारी।
लाल - लाल उसकी आँखों से
निकल रही थी खर चिनगारी॥
एक गुप्तचर काँप रहा था,
थरथर खड़ा खड़ा कोने में।
इधर अलाउद्दीन क्रूर को
देर न थी पागल होने में॥
मृगया - निरत रतन को बन से
वही पकड़कर ले आया था।
पर खिलजी का रूप देखकर
अपराधी सा घबड़ाया था॥
उसे काँपते हुए अचानक
देखा उसने तनिक घूमकर।
तुरत क्रोध कुछ शांत हो गया,
बोल उठा सानंद झूमकर॥