अंधकार था घोर धरा पर
अभय घूमते चोर धरा पर।
चित्रित पंख मिला पंखों से
सोए वन के मोर धरा पर॥
रोक पल्लवों का कंपन, तरु
ऊँघ रहे थे खड़े खड़े ही।
सैनिक अपने बिस्तर पर कुछ
सोच रहे थे पड़े पड़े ही॥
जहाँ चाँद - सूरज उगते हैं
ऊपर नभ की ओर अँधेरा।
जहाँ दीप मणियों के जलते,
यहाँ वहाँ सब ओर अँधेरा॥
अपनी आँखों से अपना ही
हाथ देखना दुर्लभ - सा था।
तम अनादि से ले अनंत तक,
चारों ओर अगम नभ - सा था॥
गगन चाहता धरा देखना,
अगणित आँखों से तारों की।
तम के कारण देख न पाया,
पामरता अरि के चारों की॥
नीरवता छाई थी केवल,
भूँक रहे थे श्वान दूर पर।
मंद मंद कोलाहल भी था,
और विजय के गान दूर पर॥
जंगल से आखेट खेलकर
रावल अब तक महल न आए।
दुर्गवासियों के मुख इससे
सांध्य - कमल - से थे मुरझाए॥
रावल – रतन – वियोग - व्यथा से
आग लगी रानी के तन में।
आत्मविसर्जन के सब साधन
रह रह दौड़ रहे थे मन में॥
इधर क्रूर कामातुर खिलजी,
बहक रहा था सरदारों में।
मोमबत्तियाँ जलतीं जगमग,
प्रतिबिंबित हो हथियारों में॥
ललित झाड़ फानूस मनोहर,
लाल हरे पीले जलते थे।
जगह जगह पर रंग – बिरंगे,
दीपक चमकीले जलते थे॥
मध्य प्रकाशित, तिमिर पड़ा था,
चारों ओर सजग घेरों में।
विविध रूप धर भानु छिपा था,
मानो खिलजी के डेरों में॥
सोने की चित्रित चौकी पर
एक ओर थी रखी सुराही।
घी का दीप इधर जलता था,
उधर जमात जमी थी शाही॥
उन डेरों के बीच बना था,
उन्नत एक मनोहर डेरा।
पहरेदार सतर्क खड़े थे,
रक्षा के हित डाले घेरा॥
उसी जगह माणिक - आसन पर
शीतलपाटी बिछी हुई थी।
ऊपर शीतलता छाई थी,
नीचे गुलगुल धुनी रुई थी॥
उस पर वह रेशम - पट डाले
बैठा था लेकर खंजर खर।
पीता था मदिरा अंगूरी,
सोने के प्यालों में भर भर॥
एक ओर हीरक - थालों में
एला – केसर – पान – सुपारी।
एक ओर सरदारों से था
बातचीत करता अविचारी॥
बोला खिलजी, रूपवती वह
कल परसों तक मिल जाएगी।
नहीं मिली, तो रण – गर्जन से
सारी पृथ्वी हिल जाएगी॥
दोनों रक्षित रह न सकेंगे,
चाहे रक्षित प्राण रहेगा।
राजपूत - लालित – पालित या
चाहे यह मेवाड़ रहेगा॥
बोल उठे दरबारी, हाँ, हाँ,
इसमें कुछ संदेह नहीं है।
इच्छा पर है जब चाहें तब
रानी की मृदु देह यहीं है॥
किंतु एक दरबारी बोला,
क्षत्रिय – रक्षित है रानी भी।
इतनी जल्दी तो न मिलेगी,
कोई नकचपटी कानी भी॥