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टेलीफोन करना चाहता हूं मैं / लक्ष्मीकान्त मुकुल

Kavita Kosh से
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इतने मीलों दूर बैठकर टेलीफोन से
बातें करना चाहता हूं अपने गांव के खेतों से
जिसकी पक चुकी होंगी फसलें
पर उसका नंबर मेरी डायरी में अब तक दर्ज नहीं
बातियाना चाहता हूं
खलिहान के दौनी में लगे उन बैलों से
जो थक गये होंगे शाम तक भांवर घूमते हुए
उन भेडों से, जो आर-डन्डार पर
घासें टूंग रही होंगी
बगीचे के इकलौते आम के पेड़ से
जिसमें हर साल-दो-साल बाद लगते हैं टिकोरे
अपने आंगन में उगे अमरूद को करना चाहता हूं फोन
जिसकी डहंगियों पर बंदर की भांति
उछल-कूदकर गुजारा था अपना छुटपन
पर किसी का नंबर तक मुझे नहीं मालूम
गांव की उस नदी के पास जरूर कोई इंटरनेट होगा
वरना कैसे बातें करती होगी वह बादलों से
रास्ते में मिले पहाड़ के माथे पर
होगी ही वायरलेस की सुविध
नहीं तो हजार कोस दूर बीहड़ जंगलों से
कैसे आ पाते होंगे जांघिल पंछी
उन चिड़ियों के पास अवश्य ही होगा फैक्स
भला कैसे पहुंचाते होंगे एक-दूसरे घोसले तक संदेश
और नहीं तो कर्कश आवाज करते उन कौवों के पास
होगा ही मोबाइल नहीं तो छप्पर पर उनके उचरते ही
कैसे होता होगा पाहुन के आगन का सगुन
और भरक जाती होगी हमारे चूल्हे की आग
इस सिकुड़ती दुनिया में भी अपने कई प्रिय जनों के
नहीं मालूम है फोन नंबर वगैरह
जिनसे जी भर बातों के लिए तरस रहा हूं मैं, सदियों से।