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डूबन / लक्ष्मीकान्त मुकुल
Kavita Kosh से
थके चेहरे
उतर आते नींद की संध्या में
बैठ रहे थे पंछी
पंख पसारे
सब्जी के खेत के कोने में
सामने घर था, मंडी
पोस्टरों से चिपका हुआ
शोर शांत बावड़े में
लटका था गत दिनों की चुप्पी थामे
भुतहे घरों में कुंडी से लटकी
आत्मायें सांसों के आर-पार की दिशा में
सीढ़ियां खोज रही थीं
शेष होते वृक्ष-छाया में डूबती हुईं।