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तल्ख़ा ब-ग़म ख़नदा-जबीं हो के पिए / 'अनवर' साबरी
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तल्ख़ा ब-ग़म ख़नदा-जबीं हो के पिए जा
मौहूम उम्मीदों के सहारों पे जिए जा
मायूस न हो बे-रुख़ी-ए-चश्म-ए-जहाँ से
शाइस्ता-ए-एहसास कोई काम किये जा
शिकवा न कर इस दौर-ए-जुनूँ-ज़ाद का कोई
तक़दीर-ए-ख़िरद-सोज़ को इल्ज़ाम दिए जा
औरों को गिरेबाँ की तुझे फ़िक्र ही क्यूँ हो
तू अपनी ही सद-चाकी-ए-दामाँ को सिये जा
हर लम्हा तग़य्युर पे निगाहों को जमाए
तू जाइज़ा-ए-गर्दिश-ए-अय्याम लिए जा
इस जब्र-ए-मशीयत को तो सहना ही पड़ेगा
बे-कैफ़ सही उन के इशारों पे जिए जा
साक़ी की नज़र से कोई निस्बत है तो 'अनवर'
पीने की अदा ये भी है बे-जाम पिए जा