भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तल्ख़ा ब-ग़म ख़नदा-जबीं हो के पिए / 'अनवर' साबरी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तल्ख़ा ब-ग़म ख़नदा-जबीं हो के पिए जा
मौहूम उम्मीदों के सहारों पे जिए जा

मायूस न हो बे-रुख़ी-ए-चश्म-ए-जहाँ से
शाइस्ता-ए-एहसास कोई काम किये जा

शिकवा न कर इस दौर-ए-जुनूँ-ज़ाद का कोई
तक़दीर-ए-ख़िरद-सोज़ को इल्ज़ाम दिए जा

औरों को गिरेबाँ की तुझे फ़िक्र ही क्यूँ हो
तू अपनी ही सद-चाकी-ए-दामाँ को सिये जा

हर लम्हा तग़य्युर पे निगाहों को जमाए
तू जाइज़ा-ए-गर्दिश-ए-अय्याम लिए जा

इस जब्र-ए-मशीयत को तो सहना ही पड़ेगा
बे-कैफ़ सही उन के इशारों पे जिए जा

साक़ी की नज़र से कोई निस्बत है तो 'अनवर'
पीने की अदा ये भी है बे-जाम पिए जा