भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तिरे वजूद की ख़ुशबू का पैरहन पहना / मेहर गेरा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 
तिरे वजूद की ख़ुशबू का पैरहन पहना
तिरे ही लम्स को ओढ़ा तिरा बदन पहना

वो शख्स भीग के ऐसे लगा मुझे जैसे
कँवल के फूल ने पानी बदन बदन पहना

खमोश कोहे-निदा था कई बरस से मगर
हरेक शख्स ने था फिर भी इक कफ़न पहना

सभी का जिस्म नई रुत ने आज ढांप दिया
हरेक पेड़ ने पत्तों का पैरहन पहना

तिरे बदन की ज़िया इस तरह लगे जैसे
इक आफताब को तूने किरन-किरन पहना

लिबास मेहर कुछ ऐसा मिला तुझे जिसको
तमाम उम्र ही तूने शिकन शिकन पहना।