भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तेज़ चलते हैं हवाओं को पकड़ने वाले / मेहर गेरा
Kavita Kosh से
तेज़ चलते हैं हवाओं को पकड़ने वाले
क्यों रुकें राह में तूफ़ान से लड़ने वाले
उम्र भर एक ही खंडर में रहूँ मैं क्योंकर
बस्तियां फिर से बसाने हैं उजड़ने वाले
जलती रुत में कभी मिल जाते हैं साया बनकर
रंग और रूप के मौसम में बिछुड़ने वाले
तू मेरे जज़्ब-ए-बेलौस की तौहीन न कर
मेरी गुदड़ी में किसी लाल को जड़ने वाले
दिल को ख़ूबी है कि हर रुत में हरा रहता है
मेहर इस पेड़ के पत्ते नहीं झड़ने वाले।