तेरा पैग़ाम मुझे बादे- सवा देती है
दिल की दहलीज़ पे इक दीप जला देती है
आप की याद मुझे रुप नया देती है
मेरी सोचों पे नये रंग बिछा देती है
छू के जब आती है जलती हुई लकड़ी को हवा
दर्द काटे गए पेड़ों का बढ़ा देती है
देश में परियों के सो जाते हैं बच्चे जा कर
प्यार से लोरियां मां जब भी सुना देती है
आग नफ़रत की न रखना कभी अपने दिल में
ये मकानों को, मकीनों को जला देती है
तुम विदेशों में न जाना कि विदेशी दौलत
रास्ता आदमी को घर का भुला देती है
मैं दीए आस के रखती हूं मुंडेरों पे मगर
कोई आंधी उन्हे हर रोज़ बुझा देती है
मेरी फ़रियाद निकल कर मेरे दिल से अक्सर
ऐ ‘अनु’ अद्ल की ज़ंजीर हिला देती है