थीं वे विकसित-शारदीय-मल्लिका-सुमन-शोभित रजनी / हनुमानप्रसाद पोद्दार
थीं वे विकसित-शारदीय-मल्लिका-सुमन-शोभित रजनी।
देख उन्हें कर प्रकट ’योगमाया’-’अचिन्त्य निज शक्ति’ धनी॥
षडैश्वर्य भगवान पूर्णने किया तुरत संकल्प महान।
रमण-’रसास्वादन’ स्वरूप-वितरण’का, कर सबको रस-दान॥
दीर्घकाल पर दे दर्शन निज प्यारीको जैसे प्रियतम।
रँग दे केसरसे उसका मुख-मण्डल निज कर सुखद परम॥
वैसे प्राची दिशा-सुमुखि मुख सुखद स्वकिरण-अरुणसे रंग।
उदय हुआ विधु जग-जीवोंका ताप मिटाता शीतल अंग॥
लक्ष्मी-मुख-सम शोभित नव कुङ्कुम-सम अरुण-वर्ण शशि देख।
विधुकी कोमल किरणावलिसे उद्भासित अरण्यको लेख॥
मधुर-मनोहर नेत्रवती शुचि व्रज-सुन्दरियोंका मन-हर।
किया विचित्र वेणु-वादन माधवने सुललित मधुर-स्वर॥
मुरलीके मधु स्वरमें पाकर प्रियतमका रसमय आह्वान।
हुर्ईं सभी उन्मा, चलीं तज लज्जा, धैर्य, शील, कुल-मान॥
पति, शिशु, गृह, धन, धान्य, वस्त्र, भूषण, गौ, कर भोजनका त्याग।
चलीं जहाँ जो जैसे थीं, भर मनमें प्रियतमका अनुराग॥
नहीं किसीसे पूछा कुछ भी, कहा न कुछ भी, चिा विभोर।
चलीं वेगसे जहाँ बजाते थे मुरली मधु नन्द-किशोर॥
प्रेमविवर्धक मुरली-स्वरसे हो अति विह्वल व्रजनारी।
पहुँचीं तुरत निकट प्रियतमके भूल स्व-परकी सुधि सारी॥
थीं वे कृष्णगृहीत-मानसा, थीं वे उज्ज्वल रसकी मूर्ति।
थीं वे शुचितम प्रेमपूर्ण नटवरकी मधुर लालसा-पूर्ति॥
आत्मनिवेदन, पूर्ण समर्पण था पवित्रतम उनका भाव।
जिसमें था न स्व-सुख-वाछाका किंचित् लेश, न किंचित् चाव॥
विविध भाँतिसे किया परीक्षण, दिखा मोह, भय, धर्म, विवेक।
पर उन प्रेममयी शुचि ब्रज-वधुओंने तनिक न छोड़ी टेक॥
कहा-’विभो ! सर्वत्र विराजित ! सर्व-समर्थ ! सर्व-आधार।
क्यों नृशंस तुम बोल रहे यों ? आयीं हमें देख निज द्वार॥
त्याग सर्व-विषयोंको-भुक्ति-मुक्तिको, हम आयीं पद-मूल।
दुरवग्रह ! मत छोड़ो हमको, यों सारी रसमयता भूल॥
प्रिय ! तुम ही हो प्राणिमात्रके बन्धु, आत्मा अति प्रियतम।
पाकर छोड़ जाय जो तुमको, महामूर्ख वह, पतित, अधम॥
तुहीं बताओ परम धर्मविद् ! नित्यप्रिय ! तुमसे कर प्रीति।
भजे अन्य दुःखदको फिरसे, ?या है कभी उचित यह नीति ?
छोड़ कहाँ हम जायँ तुहें अब, चलते नहीं चरण पद एक।
सुखसे लूट सभीका मन-धन, चले बताने हमें विवेक’॥
आत्माराम-शिरोमणि सत्-चित्-परमानन्दरूप पर-धाम।
योगेश्वर-ईश्वर सब-लोक-महेश्वर नित्यतृप्त निष्काम॥
अज-भव-शेष-सनक-नारद सब करते नित जिनका गुण-गान।
प्रेममयी ब्रज-बनिताओंके शुद्ध प्रेम-बस वे भगवान॥
अङङ्ग विमल शुचि स्पर्श-दान कर किया सभीको पावन, धन्य।
भावोद्दीपन किया, जगाया शुद्ध-काम रतियोग्य अनन्य॥
आत्मरमण फिर किया परम शुचि पूर्णकाम हरिने अभिराम।
शारदीय उन शशधर-किरण-सुशोभित रातोंमें रस-धाम॥
सत्यकाम अवरुद्ध-सुसौरत हरिने किया पवित्र विहार।
सत्-संकल्प चिन्मयी लीला-रसमय मधुर नित्य अविकार॥
नहीं रमण यह था कदापि विषयासक्तएंका ’इन्द्रिय-भोग’।
नहीं आत्माराम योगियोंका भी ’आत्मरमण’-संयोग॥
’काम-विजय’ का भी न कहीं था कुछ भी यहाँ कल्पना-लेश।
क्योंकि नीच कामका तो हो सकता यहाँ न कभी प्रवेश॥
था विशुद्ध वितरण माधवका ’निज-स्वरूप-आनंद’ महान।
था यह परम ’रसास्वादन’ का निजमें ही निजका सुविधान॥
आस्वादक आस्वाद्य न दो थे, था मधुमय लीला-संचार।
था यह एक विलक्षण पावन परम प्रेमरसका विस्तार॥
मधुर परम इस रस-सागरमें गोपीजनका ही अधिकार।
परम त्यागका मूर्त रूप लख, जिन्हें किया हरिने स्वीकार॥
प्रेममयी ब्रज-रमणी-गणमण्डलमें हुए सुशोभित श्याम।
अगणित राशि-तारिकामें अकलङङ्क पूर्ण विधु विमल ललाम॥
अथवा नव नीलाभ श्याम-घन दामिनि-दलमें रहे विराज।
घन-दामिनि, दामिनि-घन अन्तर अगणित उभय अतुल दुति साज॥
रासेश्वरी राधिकाके एकाधिपत्यमें सुन्दर साज।
शुचि सौन्दर्य मधुर रसमय असमोर्ध्व अमित बिजली-घनराज॥
एक-एकके मध्य मनोहर एक-एक, सब मिल, दे ताल।
रास-रसिक रस-नृत्य-निरत, शुचि बाज रहे मृदु वाद्य रसाल॥
जो इस मधुर शुद्ध रसका किंचित् भी कर पाता आस्वाद।
दृश्य जगत्का मिटता सारा शोक-मोह-भय-लोभ-विषाद॥
होता कामरोगका उसके जीवनमें सर्वथा अभाव।
राधा-माधव-चरण-रेणु-कण-करुणासे वह पाता ’भाव’॥
’भाव’ प्राप्त हो वह हो पाता राधारानीका अनुचर।
सभी दोष मिट, होती उसमें प्रकट गुणावलि शुचि सत्वर॥
पाता वह फिर नित-निकुजमें अति दुर्लभ सेवा-अधिकार।
जिसके लिये सदा ललचाते ऋषि-मुनि-तापस छोड़ विकार॥