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दर्द कौन समझेगा / पवन कुमार
Kavita Kosh से
तूने बख़्शा तो है
मुझे
खुला आसमां
साथ ही दी हैं
तेज हवाएं भी
हाथों से हल्की जुम्बिश
देकर जमीं से ऊपर उठा
भी दिया है।
मगर
ये सब कुछ बेमतलब
सा लगता है,
ये आस्मां, ये हवाएं, ये
हल्की सी जुम्बिश।
काश!
तूने ये कुछ न दिया होता
बस मेरी कमान खोल दी
होती,
एक धागा है कि
जिसने बदल दिए हैं
मेरी आज़ादी के मायने,
डोर से बंधी पतंग का
दर्द कौन समझेगा।
(महिला दिवस पर दुनिया की आधी आबादी के नाम)