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दश्त में बैठ के घर देखते हैं / 'महताब' हैदर नक़वी
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दश्त में बैठ के घर देखते हैं
हम भी अब अपना हुनर देखते हैं
देखने के लिये दुनिया है बहुत
हम अभी तुझको मगर देखते हैं
एक-एक रोज़ करते हैं हिसाब
एक-एक शब की सहर देखते हैं
बैठे बैठे ही कटी जाती है उम्र
सफ़र-ओ-रख़्त-ए-सफ़र देखते हैं
तेरे मंज़र तो वही हैं सारे
फिर भी हम बार-ए-दिगर देखते हैं
देखना है तो उसी को देखें
क्यों इधर और उधर देखते हैं