भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दिल में कोई खलिश छुपाये हैं / पवन कुमार
Kavita Kosh से
दिल में कोई खलिश छुपाये हैं
यार आईना ले के आये हैं
अब तो पत्थर ही उनकी किस्मत हैं
जिन दरख़्तों ने फल उगाये हैं
दर्द रिसते थे सारे लफ़्ज़ों से
ऐसे नग्में भी गुनगुनाये हैं
अम्न वालों की इस कवायद पर
सुनते हैं ‘‘बुद्ध मुस्कुराये हैं’’
अब ये आवारगी का आलम है
पाँव अपने सफर पराये हैं
जब कि आँखें ही तर्जुमां ठहरीं
लफ़्ज़ होंठों पे क्यों सजाये हैं
कच्ची दीवार मैं था बारिश वो
हौसले खूब आजमाये हैं
देर तक इस गुमाँ में सोते रहे
दूर तक खुशगवार साये हैं
जिस्म के जख़्म हों तो दिख जायें
रूह पर हमने जख़्म खाये हैं