दीपावली / रामेश्वर शुक्ल 'अंचल'
दिशा-दिशा में दीपों की
आलोक-ध्वजा फहराओ
देह-प्रहित शुभ शुक्र! आज तुम
घर-घर में उग आओ
व्योम-भाल पर अंकित कर दो
ज्योति-हर्षिणी क्रीड़ा
सप्तवर्ण सौंदर्य!
प्रभामंडल में प्राण जगाओ!
जागो! जागो! किरणों के
ईशान! क्षितिज-बाहों में
जागो द्योनायक! पर्जन्यों की
अरश्मि राहों में
जागो स्वप्नगर्भ तमसा के
उर्ध्व शिखर अवदाती
श्री के संवत्सर जागो
द्युति की चक्रित चाहों में।
तिमिर-पंथ जीवन की
जल-जल उठे वर्तिका काली
पके समूची सृष्टि विभा से,
अमा घनी भौंराली
सुषमा के अध्वर्य,
उदित शोभा के मंत्रजयी ओ!
भर दो ऊर्जा से प्रदीप्ति की
भुवन-मंडिनी थाली।
गोरज-चिह्नित अंतरिक्ष के
ज्योति-कलश उमड़ाओ
स्वर्णपर्ण नभ से फिर मिट्टी
के दीपों में आओ
आभा के अधिदेव! मिटा दो
धरा-गगन की रेखा
रश्मित निखिल यज्ञफल को फिर
जन-जन सुलभ बनाओ
दिशा-दिशा में इंद्रक्रांति के
कुमुद-पात्र बिखराओ
सप्तसिंधु-पोषित धरणी की
अंजलि भरते जाओ
सुरजन्मी आलोक! चतुर्दिक
प्रतिकल्पी तम छाया
श्री के संवत्सर! ऋतुओं की
जड़ता पर छा जाओ!