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दूर ऐसे फ़लक-ए-मैहर-ए-जबीं हो जैसे / 'महशर' इनायती

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दूर ऐसे फ़लक-ए-मैहर-ए-जबीं हो जैसे
और मालूम ये होता है यहीं हो जैसे

ख़ाक छानी है भरे शहर की गलियों गलियों
एक कूचा है के फ़िर्दोस-ए-बरीं हो जैसे

तुम भी कुछ ऐसे छुपे हो के नज़र तरसे है
मैं भी यूँ ढूँढ रहा हूँ के कहीं हो जैसे

तुम तो यकता हो मगर लोग मुझे भी अब तो
यूँ तकते हैं कोई मुझ सा भी नहीं हो जैसे

यूँ छुपाता हूँ ज़माने से मैं दिल की बातें
के मोहब्बत कोई नौ-ख़ेज हसीं हो जैसे

आप आएँगे किसी रोज़ गुमाँ है मेरा
और आलम वो गुम़ाँ का के यक़ीं हो जैसे

अब तो ‘महशर’ भी हैं कुछ ऐसे ही तन्हा तन्हा
ज़ाहिद-ए-मुहतरम-ए-गोशा-नशीं हो जैसे